समकालीन कविताएँ >> अंग संग अंग संगसुदर्शन प्रियदर्शिनी
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
अवसाद के झुटपुटों में घिरी बूंदों का शब्द रूप धारण कर लेना ही कविता हो जाता है। मन को घेरता घटाटोप कब बरस कर बूंदें बन जाये, किसी को आहट तक नहीं होती। पीड़ा का परिणाम सदैव सुंदर ही हो, ऐसा नहीं है। पर मुझे लगता है जब प्रसव-पीड़ा का परिणम सुखद किलकारी के रूप में अनुगूंजित होता है तब वह आप अंग-संग न बन जाये, यह तो असंभव ही है। फिर आप उन में और बाद में आई किलकारियों में वैमनस्य कैसे कर सकते हैं। इसलिए कुछ को अपना अंग-संग कह देना भी आसान नहीं है। सभी अंग-संग होती हैं फिर भी न चाहते हुए कुछ के हाव-भाव सहज-सुखद होते हुए भी मनोहारी नहीं हो पाते...यह भी प्रकृति है। इसीलिए इन्हें अंग-संग कहकर संकलित कर रही हूं। इनमें कुछ बहुत नई भी हैं।
मालूम नहीं यह फुलझड़ियों सी चमक कर सदा के लिए बुझने वाली साबित होंगी या उस प्रज्ज्वलित दीप्ति को शाश्वत आंखों में उज्जवलित रख पाने का श्रेय पायेगी...नहीं जानती। यों भी हर मन की हर पल एक विभिन्न स्थिति होती है। उसी स्थिति परिकता में हम आकलन या मूल्यांकन करते हैं। पर सब से ऊपर होता है पुस्तक का भाग्य और उससे भी ऊपर लेखक के भाल के बनती-मिटती रेखाएं, जैसा भी है जो भी है इतना जरूर है कि मन की भट्टी पर पककर और हृदय की सारी संवेदनाओं को अपनी हथेली पर संजोने जैसा लगता है यह सब। हृदय की वह पीड़ा अनुभव, उतार-चढ़ाव की सारी सुफल सीढ़ियां न चढ़ सके तो वह तो लेखक की अकिंचता या हार है न ! पर मन की संवेदनाओं की गहराई तो कम न होगी पायेगी। बस अपने मन के तार आप को सौंपती हूं अपनी अंगुलियों का स्पर्श दीजिये ताकि कोई ध्वनि बन सके।
मालूम नहीं यह फुलझड़ियों सी चमक कर सदा के लिए बुझने वाली साबित होंगी या उस प्रज्ज्वलित दीप्ति को शाश्वत आंखों में उज्जवलित रख पाने का श्रेय पायेगी...नहीं जानती। यों भी हर मन की हर पल एक विभिन्न स्थिति होती है। उसी स्थिति परिकता में हम आकलन या मूल्यांकन करते हैं। पर सब से ऊपर होता है पुस्तक का भाग्य और उससे भी ऊपर लेखक के भाल के बनती-मिटती रेखाएं, जैसा भी है जो भी है इतना जरूर है कि मन की भट्टी पर पककर और हृदय की सारी संवेदनाओं को अपनी हथेली पर संजोने जैसा लगता है यह सब। हृदय की वह पीड़ा अनुभव, उतार-चढ़ाव की सारी सुफल सीढ़ियां न चढ़ सके तो वह तो लेखक की अकिंचता या हार है न ! पर मन की संवेदनाओं की गहराई तो कम न होगी पायेगी। बस अपने मन के तार आप को सौंपती हूं अपनी अंगुलियों का स्पर्श दीजिये ताकि कोई ध्वनि बन सके।
अकेले
मैंने
अपने से अलग
अपने घावों
अपनी रिसती
बिवाइयों
गले की फांस बनी
विसंगतियों
दम घोंट देने वाली
वे सारी व्यथाओं की
एक पोटली बांध कर
अलग अलगनी पर
टांग दी है...
ताकि जब तुम
आओ तो
ले चलो
मुझे अकेले
निःसंग
उन सबसे परे
निःस्वच्छ
स्फटिक लोक में
अकेले...।
अपने से अलग
अपने घावों
अपनी रिसती
बिवाइयों
गले की फांस बनी
विसंगतियों
दम घोंट देने वाली
वे सारी व्यथाओं की
एक पोटली बांध कर
अलग अलगनी पर
टांग दी है...
ताकि जब तुम
आओ तो
ले चलो
मुझे अकेले
निःसंग
उन सबसे परे
निःस्वच्छ
स्फटिक लोक में
अकेले...।
अतिथि
कोई नहीं रख सकता
मेरी हथेलियों पर
ऐश्वर्य की बीठ...
और
उठा ले जा सकता है
मेरे आंगन की मुंडेर पर खड़ी
मेरी सल्लनत...।
मैंने
बहुत पहले लगाये थे
दीवारों की किनारियों पर
टूटे हुये शीशे
किरच किरच से ढंकी थी
सारी दीवार की पटरी
कि न लग सके कोई
सेंध या डाका
मेरे आंगन में।
पर
सभ्यता की मार ने
वे सारे शीशे
साफ कर दिये हैं
ऐश्वर्य की चौंध ने
दीवारों क्या
दरवाजों तक के
ताले खोल दिये हैं
और
अतिथियों को
अतिथि बना लिया है...।
मेरी हथेलियों पर
ऐश्वर्य की बीठ...
और
उठा ले जा सकता है
मेरे आंगन की मुंडेर पर खड़ी
मेरी सल्लनत...।
मैंने
बहुत पहले लगाये थे
दीवारों की किनारियों पर
टूटे हुये शीशे
किरच किरच से ढंकी थी
सारी दीवार की पटरी
कि न लग सके कोई
सेंध या डाका
मेरे आंगन में।
पर
सभ्यता की मार ने
वे सारे शीशे
साफ कर दिये हैं
ऐश्वर्य की चौंध ने
दीवारों क्या
दरवाजों तक के
ताले खोल दिये हैं
और
अतिथियों को
अतिथि बना लिया है...।
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